Pratham bhool [Hindi]
मनुष्य स्वयं को भूलता चला गया,
स्वयं के अहं में झुलता चला गया,
जैसे जीवन का प्रत्येक पान खुलता चला गया,
जीवन रूपी रस वैसे ही ढुलता चला गया।
धर्म एवं कर्म के मध्य झूँझ गया इतना,
क्यों के बदले क्या पर समय व्यर्थ किया कितना,
परस्परता को अंतर मान जब चाहा विश्व जीतना,
तब वही कुकर्म निरंतर फल बन, लगा उस पर बीतना ।
परमात्मा से भेंट के लिये किये अगणित यतन,
दान कर लक्ष्मी का, सरस्वति के सुने कथन,
अंग, वाणी, मुख, भाव के श्रृंगार में उपयोग किये अमुल रतन,
आत्मा की शुद्धी एवं मन के श्रृंगार रस का यदी किया होता जतन,
तो जीवन का अंत मृत्यु लाती, न की ऐसा भयावय पतन ।
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